Monday 27 June 2016

कहाँ चले गये तुम

छोटी सी बात को दिल पे लगा के कहाँ चले गये तुम,
कुछ तो कहा होता हमसे बिना कुछ कहे कहाँ चले गये तुम,
लड़ते थे झगड़ते थे पर प्यार तो था,
ना मौका दिया हमको कोई,
ऐसे तन्हा छोड़ के हुंको कहाँ चले गये तुम,
रूठने के मनाने के जो मौसम आते थे पल पल,
उन प्यार भरे मौसमों को छोड़ के कहाँ चले गये तुम,
क्या गुनाह किया क्या खता हुई,
इतना तो कहा होता,
यूं तनहाइयों में कैद हमको कर कहाँ चले गये तुम,
पास आ जाओ, बिन तुम्हारे अश्‍क़ बहते हैं हर पल हमारे,
छोड़ हज़ारों गम के आंसू पलकों में हमारी,
यूँ बिन कुछ कहे कहाँ चले गये तुम|

Wednesday 22 June 2016

मुझे पंख दे दो

पाना चाहती हूँ अपने हिस्से की धूप, छूना है मुझे भी आकाश, सजाने हैं इन्द्रधनुष के रंगों से ख़्वाब, बीनने हैं मुझे सागर की गहराई से मोती, करने हैं अनन्त आकाश पर अपने छोटे से हस्ताक्षर, बिखेरनी है चाँद की चांदनी चहुँ ओर, करना है ब्रह्माण्ड के रहस्यों का उद्गाटन, भरना है कई मुस्कुराहटों में जीवन, अपने उत्साह की किरणों से बनाना है मुझे सम्पूर्ण वातावरण को सजीव और मुखरित, लिखनी है मुझे अपने हाथों से अपनी तकदीर! बस मुझे मेरे पंख दे दो। 

मेरी शक्ति, प्रखरता, बुद्धि, कौशल, सुघड़ता और सपने; मेरा स्वाभिमान और आत्मविश्वास...साँस लेने के लिए किसी और की अनुमति का मोहताज क्यों हों? क्यों बनाकर रखना चाहते हो सदा मुझे अपनी अनुगामिनी? क्यों रसोई और बिस्तर के गणित से परे तुम नहीं सोच पाते एक स्त्री के बारे में? मुझे नहीं चाहिए वह प्रेम जो सिर्फ वासना, शोषण, हिंसा, ईर्ष्या और आधिपत्य के इरादों से उपजा हो। मुझे नहीं चाहिए वह वहशी प्रेम जो एसिड फेंकने, बलात्कार, हत्या या अपहरण जैसे दुष्कर्मों से भी नहीं हिचकता।  नफ़रत और दर्द देने वाला प्रेम मुझे नहीं चाहिए। मुझे चाहिए ऐसा प्रेम जो मुक्ति के आकाश में जन्मा हो, जिसमें स्वतंत्रता की सांस हो, विश्वास का प्रकाश हो, करुणा की धार हो; जो मेरी बातों, मेरे ख़्वाबों और मेरी मुस्कुराहटों में जीवन भर सके। मुझे प्रेम से भरा प्रेम चाहिए। 

हमेशा से उस सहजता की तलाश में हूँ, जहाँ मुझे ये ना सुनना पड़े कि लडकियाँ ये नहीं करती, लडकियाँ वो नहीं करती। मुझे सिर्फ सकुचाती, सबसे नज़र चुराती, सदा अपना दुपट्टा संभालती युवती बनकर नहीं रहना है। क्यों मैं अकेली बेफिक्र होकर सड़क पर नहीं चल सकती? घर से लेकर कार्यस्थल तक कहीं भी तो मैं सुरक्षित नहीं। खाकी वर्दी हो चाहे संसद और न्यायपालिका में बैठे देश के कानून के निर्माता, किसी पर भी तो भरोसा नहीं कर सकती। क्या कभी मुक्त हो पाऊँगी मैं इस आंतक से...जो हर क्षण मेरे जीवन में पसरा हुआ है। कब बदलेगा मेरे प्रति समाज का नज़रिया? कब मिलेगा मुझे सुरक्षित माहौल?

मुझे मुक्ति चाहिए उस असहजता से, उस डर से जो मुझे अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों पर भी विश्वास करने की इजाजत नहीं देता। मुझे मुक्ति चाहिए उस संकीर्ण सोच और कुप्रथाओं से जो मुझे हमेशा द्वितीय श्रेणी का नागरिक होने का आभास कराती है। मेरे साथ हर स्तर पर भेदभाव करती है। मेरा तिरस्कार करती है। मुझे अवसरों और उपलब्धियों से वंचित रखती है। मुझे पुरुषों की आश्रित और संपत्ति बनाकर रखना चाहती है। मत करो कन्याओं की पूजा, मत चढ़ाओं माँ को नित नया भोग! बस ये सहजता ला दो, जहाँ खुद को एक इंसान समझकर हम भी खुलकर सांस ले सकें। हमें हमेशा ये याद न रखना पड़े कि हम लड़कियाँ हैं। मुझे माँ और बहन की तरह मत देखो। बस मुझे इंसान समझकर इंसानों सा व्यवहार करो। क्या ला सकते हो ऐसी सहजता? क्या दे सकते हो ऐसा आज़ाद जीवन? 

कब मुक्ति मिलेगी मुझे इस बीमार समाज से जो सम्मान के नाम पर घिनौने मानक बनाकर जी रहा है। मुझे आज़ाद कर दो उन तालिबानी फरमानों से जो कभी मेरे कपड़ों को लेकर सुनाये जाते हैं, कभी मुझे मोबाइल रखने को प्रतिबंधित करते हैं तो कभी पुस्तकालय तक में मेरा प्रवेश निषेध करते हैं। धरती से अम्बर तक अपनी खुश्बूँ बिखेरने की ख्वाइहि रखते मेरे प्रेम को कब तुम कौम की कैंची से कुतरना बंद करोगे? कब बंद होगी जाति, धर्म, गौत्र और अपने झूठे सम्मान के अंधे नशे में मेरी और मेरे प्रेम की हत्या? कब?

मुझे मुक्ति चाहिए उस दकियानूसी सोच से जो मेरे शरीर की एक स्वाभाविक प्राकृतिक क्रिया को शुद्धता और अशुद्धता से जोड़कर मुझे अपवित्र करार देती है। क्यों मेरे शरीर के साथ मेरे दिल को छलनी कोई और करता है और इज्जत मेरी चली जाती है? और इतना होने के बाद भी क्यों मैं समाज के ऊटपटांग सवालों का सामना करूँ? क्यों? पहले मेरा बलात्कार, फिर उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने पर अपराधी जैसा व्यवहार! इतनी मानसिक प्रताड़ना और न्याय जीते जी मिल जाएगा इसका भी भरोसा नहीं। बदल डालो ये महज़ डिग्रीयां देने वाली पढ़ाई, जो इंसान को इंसान तक ना बना पायी।

कभी संस्कृति के नाम पर, कभी परम्पराओं के नाम पर, क्यों हमेशा मुझे ही अपनी इच्छाओं और सपनों को त्यागना होता है? जब-जब मैंने वर्जनाओं को तोड़ने की कोशिश की, पितृ सत्ता की बेड़ियों को काटना चाहा, रूढ़ियों और कुत्सित विचारों को मोड़ना चाहा, तब-तब तुम्हारी संस्कृति को ख़तरा महसूस हुआ। जरा से मेरे विद्रोह के स्वर उठे और तुमने मुझे कुल्टा, कलंकिनी, कुलनाशिनी के थप्पड़ जड़ दिए। मेरी जुबान पर जलते अंगारे रख दिए। तुम्हारी संस्कृति को ख़तरा तब क्यों महसूस नहीं होता, जब धर्म की आड़ में मेरी देह का व्यापार किया जाता है। जब दहेज़ की आग में मुझे झुलसा दिया जाता है। जब अंधविश्वासों से गिरा समाज एक विधवा, परित्यक्ता या अकेली औरत को चुड़ैल ठहराकर, उसकी पिटाई कर, उसका बलात्कार कर उसे मौत की सजा देने से भी नहीं हिचकिचाता...तब तुम्हारी संस्कृति को ख़तरा क्यों नहीं महसूस होता? मुझे मुक्ति दे दो उन धर्म शास्त्रों से जो भरे पड़े हैं मात्र नारी की निंदा से। क्योंकि नहीं लिखा उन्हें किसी भी स्त्री ने। 

तुमने मुझे शिक्षित और शक्ति संपन्न बनाने के कानून बनाये। कई सरकारी और गैर सरकारी संगठनों को जागरूकता लाने के लिए खड़ा किया। मेरी रक्षा के लिए कानून के नए समीकरण गढ़े। पर अभी तो मुझे जीवन पाने और जीने का अधिकार भी पूरी तरह से कहाँ मिल पाया है? मेरे लिए तो जन्म से पहले सुरक्षित रह पाना भी चुनौतीबन गया है। क्यों मार देना चाहते हो मुझे जन्म से पहले ही कोख में? क्यों फेंक आते हो मुझे कचरे के ढेर में? क्यों कर देते हो कच्ची उम्र में मेरा ब्याह। एक ओर कन्या की पूजा करते हो और दूसरी ओर कन्या के जन्म को ही अभिशापमानते हो। पैदा होते ही इस तरह मेरी अस्वीकृति और अपमान क्यों? 

मुझे नहीं चाहिए वह स्त्री विमर्श जो साहित्य के नाम पर देह व्यापार कर रहा है, जहाँ मुझे बस माँस का टुकड़ा भर बनाकर रख दिया गया है। मुझे ‘मेड टु आर्डर’ व्यंजन बनाकर परोसा जा रहा है। जहाँ रेशमी जुल्फों, नशीली आँखों, छरहरी काया, दहकते होंठ और मादक उभारों से ज्यादा मेरा कोई अस्तित्व नहीं।  मुझे नहीं चाहिए ऐसा स्त्री विमर्श!

मेरे सपनों को न जलाओ। चहारदीवारी की अकुलाहट, घुटन और छटपटाहट से मुझे आज़ाद कर दो। चुल्हा, चोका, बर्तन बस यही तो मेरा कर्म नहीं है न? मेरे चेहरे को ढ़ककर मेरी अस्मिता न नापो। मेरे अस्तित्व को छोटे-बड़े कपड़ों में न उलझाओ। मेरी इज्जत को किसी दुष्कर्मी के दुष्कर्मों से परिभाषित न करो। मेरा कार्य सिर्फ पुरुष को संतुष्ट करना और संतानोत्पत्ति कर संतानों का पालन पोषण करना नहीं है।  तुम्हारे वंश को बढ़ाने वाले लड़के की चाह में मुझे बच्चों पर बच्चे पैदा करने वाली मशीन मत बनाओ। मैं कोई भिक्षा नहीं मांग रही। सिर्फ अपना हक़ मांग रही हूँ। 

मेरे अहसास और ज़ज्बात भी स्वर पाना चाहते हैं। मेरी रचनात्मकता भी सृजित होना चाहती है। मेरे भी सपने आकार ग्रहण करना चाहते हैं। मेरी खिलखिलाहट भी हर ओर बिखरना चाहती है। देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विकास में मैं भी योगदान देना चाहती हूँ। सृजनात्मकता की रूपरेखा बनाने में भागीदारी चाहती हूँ। दुनिया के किसी भी हिस्से में बिना किसी खौफ और रोक-टोक के भ्रमण की स्वतंत्रता चाहती हूँ। अपने बारे में, अपने कार्यक्षेत्र के बारे में, अपने धर्म के बारे में, शादी के बारे में, बच्चों के जन्म के बारे में, पहनावे के बारे में और परम्पराओं के अनुसरण के बारे में निर्णय लेने की स्वतंत्रता चाहती हूँ। मैं आर्थिक, मानसिक और भावनात्मक स्वतंत्रता चाहती हूँ। 

करोगे अपनी संकीर्ण मानसिकता का बहिष्कार, जहाँ देह से परे बुद्धि और मन के आधार पर मुझे मेरी निजता और सम्मान का हक़ मिलेगा? दोगे मुझे समानता का अधिकार? बंद करोगे मेरे साथ सौतेला व्यवहार, जहाँ भाई की इच्छाओं के सामने मुझे किसी अभाव में जीना नहीं पड़ेगा? दोगे मुझे मानवीय दृष्टिकोण की वह जमीन, जहाँ रात के अँधेरे में भी मैं बेख़ौफ़ सड़क पर चल सकूंगी? जहाँ पर मुझे देवी, माँ, बेटी, बहन, पत्नी, प्रेयसी से इतर एक इंसान के रूप में भी देखा और समझा जाएगा। जहाँ मेरे अहसास छल-कपट का शिकार नहीं होंगे। दोगे मुझे मेरे पंख जो एक उन्मुक्त गरिमामय उड़ान के लिए मुझे स्वतंत्रता का आकाश प्रदान करेंगे, जहाँ मैं अपने ख़्वाबों के रंग हकीकत के कैनवास पर उकेर सकूँगी? क्या, दोगे मुझे मेरे पंख?

एक दिन तुमसे जरुर मिलूँगी


तुम्हारी ओर क्यों खिंची चली आ रही थी, अब तक नहीं जानती थी. पर जब मासूम अंदाज़ में कही तुम्हारी बातें खुद को बार-बार दोहरा रही थीं तो अचानक अहसास हुआ कि दुनिया में सबसे ज्यादा आकर्षण अगर किसी चीज में है, तो वह मासूमियत में ही तो है. वह मासूम पिल्ला, नन्ही चिड़िया, शांत कबूतर, भोली बछिया, फुदकता मेमना, कोमल शिशु, उसकी नन्हीं सी चप्पल और ऐसी ही मासूमियत को समेटे दुनियाभर की चीजें ही तो सदा से मेरे आकर्षण का केंद्र रही हैं. जिन्हें देखते हुए एक उम्र गुजारी जा सकती है. जिन्हें देखते हुए सारे गम भुलाये जा सकते हैं. जिन्हें देखते हुए दुनिया बहुत-बहुत खूबसूरत लगती है. उस मासूमियत का अंश अगर कहीं पाऊँगी तो खुद को कैसे रोक पाऊँगी. और अब तो रोकना चाहती भी नहीं. क्योंकि मासूमियत से प्रेम ही तो सच्चे अर्थों में ईश्वर से प्रेम है.

तुम तो शायद जानते भी नहीं होंगे कि तुम्हारे बारे में सोच-सोचकर ही चेहरे पर मुस्कुराहट खिल आती है. तुम्हारे खयालों में पूरा दिन और पूरी रात मुस्कुराया जा सकता है. यह दिल तुम पर आँख मूंदकर भरोसा करना चाहता है. जी करता है तुम्हारा हाथ पकड़ लूँ और तुम्हें अपलक देखते हुए, जहाँ तुम चाहो, बिना कुछ सोचे चलती रहूँ. हाथ गालों पर टिका तुम्हारे सामने बैठूं और चुपचाप घंटों तुम्हें सुनती रहूँ. तुम्हें क्या पता... तुम्हारी तो हर बात मानने का दिल करता है. 

जब भी तुम मुस्कुराते हो न तो कुछ ऐसा जादू होता है कि मेरा रोम-रोम मुस्कुराने लगता है . मैं अक्सर तुम्हारी मुस्कुराहटों को काउंट करने लगती हूँ, इस दुआ के साथ कि एक दिन ऐसा आये जब तुम्हारी मुस्कुराहटों को गिन पाना संभव ही न हो. वो अनन्त खुशियों वाला दिन कितना अनुपम होगा न? उस दिन सृष्टि का कण-कण, पत्ता-पत्ता, जर्रा-जर्रा मुझे तुम्हारी मुस्कुराहट प्रेषित करेगा. और मैं? मैं उस दिन बहुत रोऊँगी. जानते हो क्यों? क्योंकि उस दिन मेरे आँसू भी तो मुस्कुराएंगे न.

तुम्हें पता है? जब तुम नहीं होते, तब भी मैं तुमसे बातें करती हूँ, उस सर्वव्यापी भाषा में जिसे प्रेम कहते हैं. इतना निर्मल और निष्कपट मैंने खुद को कभी महसूस नहीं किया. इतने प्यार और विश्वास ने मुझे कभी नहीं छुआ. तुम्हें जान लिया तो लगता है, अब किसी को जानने की ख्वाहिश नहीं. इतना सुकून, इतनी शांति और इतनी ख़ुशी कि तुम तक आकर ज़िन्दगी की तलाश खत्म होती सी लगती है. 

सच कहूँ तो तुम्हें चाहना ज़िन्दगी को चाहना है. जीने की इच्छा जाग उठती है सिर्फ तुम्हें चाहने के लिए. दिल करता है मांग लूँ ईश्वर से एक और जीवन सिर्फ और सिर्फ तुम्हें प्यार करने के लिए. वह जीवन जिसमें तुम्हारे साथ और सामीप्य के लिए किन्तु, परन्तु, अगर, मगर जैसा कोई शब्द मुझे रोक ना सके. वह जीवन जिसमें भूत की परछाइयों और भविष्य के झरोखों से झाँकते भय का कोई अस्तित्व ना हो. वह जीवन जिसमें सिर्फ तुम और सिर्फ मैं के बीच कुछ हो तो वह हो सिर्फ प्रेम. वह प्रेम जो सिर्फ मैं और सिर्फ तुम के अस्तित्व को सदा के लिए मिटा दे और रह जाएँ सिर्फ हम. 

फिर चाहे मैं भोर की पहली किरण बनकर तुम्हारी अलसाई आँखों को सहला उनमें चमक जाऊँ, या फिर चाय की प्याली से चुस्कियाँ लेते तुम्हारे होठों के बीच की रिक्तता से हवा बन तुममें घुल जाऊँ. भोर के भ्रमण में तुम्हारा स्वागत शीतल झोंका बनकर करूँ, या फिर सूरज की गर्मी से सूखे तुम्हारे कंठ में पानी का घूँट बनकर उतरूँ. होली के रंगों में से कोई रंग बनकर तुम्हारे गालों पर खिल जाऊँ, या फिर बारिश की एक बूँद बनकर तुम पर बरसूँ और हौले से तुम्हारे होठों पर लुढ़क आऊँ. रात तुम्हारे सिरहाने कोई मीठी सी धुन बनकर तुम्हें सुलाऊँ या फिर एक हँसी ख़्वाब बनकर नींदों में भी तुम्हें गुदगुदाऊँ. कोयल की कूंक बनकर मिश्री सी तुम्हारे कानों में घुलूँ या फिर भीगी मिट्टी की सौंधी खुशबूं बन तुम्हारी साँसों से जा मिलूं. 

नहीं जानती कैसे, पर एक दिन तुमसे जरुर मिलूँगी. बनूँगी एक लम्हा और बस तुम्हें छू लूंगी.

Last Day of College

Raah dekhi thi is din ki kabse,
Aage ke sapne saja rakhe the naajane kab se.
Bade utavle the yahaan se jaane KO,
Zindagi ka agla padaav paane KO.

Par naa jane kyon ..Dil mein aaj kuch aur aata hai,
Waqt ko rokne ka jee chahta hai.

Jin baton ko lekar rote the Aaj un par hansi aati hai,
Na jaane kyon aaj un palon ki yaad bahut aati hai .

Kaha karte the ..Badi mushkil se char saal seh gaya,
Par aaj kyon lagta hai ki kuch peeche reh gaya.

Na bhoolne wali kuch yaadein reh gayi,
Yaadein jo ab jeene ka sahara ban gayi.

Meri taang ab kaun kheencha karega ,
Sirf mera sir khane kaun mera peecha karega.
Jahaan 2000 ka hisaab nahin wahaan 2 rupay ke liye
kaun ladega,

Kaun raat bhar saath jag kar padega ,
Kaun mere naye naye naam banayega.
Mein ab bina matlab kis se ladoonga,
Bina topic ke kisse faalto baat karoonga ,

Kaun fail hone par dilasa dilayega,
Kaun galti se number aane par gaaliyaan sunayega .

Dhabe par Chaay kis ke saath piyoonga ,
Wo haseen pal ab kis ke saath jiyoonga,

Aise dost kahaan milenge Jo khai mein bhi dhakka de aayein,
Par fir tumhein bachane khud bhi kood jayein.

Mere gaano se pareshaan kaun hoga ,
Kabhi muje kisi ladki se baat karte dekh hairaan kaun hoga ,

Kaun kahega saale tere joke pe hansi nahin aai ,
Kaun peeche se bula ke kahega..aage dekh bhai .

Achanak bin matlab ke kisi ko bhi dekh kar paglon ki
tarah hansna,
Na jaane ye fir kab hoga .

Doston ke liye professor se kab lad payenge ,
Kya hum ye fir kar payenge,

Kaun muje mere kabiliyat par bharosa dilayega,
Aur jyada hawa mein udne par zameen pe layege ,

Meri khushi mein sach mein khush kaun hoga ,
Mere gam mein muj se jyada dukhi kaun hoga...

KEH DO DOSTON YE DOBAARA KAB HOGA ....????

Saturday 18 June 2016

Ek Koshish Hain…………..

Ek Koshish hai,
Aapki Jindagi Ke Kuch Lamhe Churane ki……
Ek Koshish Hai,
Aapke Jehen Me kahi Hamari Ek choti si Tasveer Banane Ki……
Ek Koshish hai,
Aapko gale lagakar ‘I Miss You’ Kehne ki…….
Ek Koshish Hai,
Aapki yaadon me bahe humare aasuon ko aapki ek muskan me badalne ki……….
Bas…. Ek Koshish hai,
Aapko apni yaad Dilane ki……….

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !


ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
कभी दर्द में बहते हैं
कभी यादो से उभरते हैं
कभी ख़ुशी से छलकते हैं
तो कभी गम में गीला करते हैं
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
दिल के बोझ को बूंदों में ढोते हैं
भावनाओ के गुबार को पानी से धोते  हैं
फिर गीली पलकों से, गुलाबी गालो से
नाज़ुक हथेलियों से जाने कहा गायब हो जाते हैं !
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
कभी गैरो की ख़ुशी से छलक जाते हैं
कभी अपनों के गम में उभर आते  हैं
लग जाये बस दिल को जब बात कोई
फिर कहाँ ये रोके जाते हैं !
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
ये शरीर रोते समय बस बुत बन जाते हैं
आँख, कान, जीभ सब मुर्दा हो जाते हैं
हैं भाषा जो इन आँसुओ की बस ,
आँसू ही बोल पाते हैं, आँसू ही सुन पाते हैं !
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
जो अकेले में बहे तो साथ देते हैं
अपनों में बहे तो सहारा बनते हैं
और गलती से गैरो में बहे
तो मजाक बना देते हैं !
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
जिनकी आँखों में रहते हैं वो भावुक होते हैं,
कमज़ोर कहलाते हैं
और जिनकी आँखों से न बहे वो कठोर कहलाते हैं,
निर्दयी बन जाते हैं !
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
हर ना को हाँ में बदलने की ताक़त रखते हैं
पत्थर को भी पिघलाने का होसला रखते हैं
फिर भी ये सदियों से लाचारी, बेबसी
और मजबूरी की ही निशानी माने जाते हैं
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
जो औरत बहाए तो इसे उसकी आदत कहते हैं !
जो आदमी बहाए तो उसे औरत का दर्जा देते हैं !
न जाने ये दुनिया इन आसुओं में बस
कमजोर को ही क्यों पाते हैं !
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
कोई आँसू बहाकर अपना काम बनाते हैं
तो कोई आँसू बहाकर हाल-ए-दिल सुनाते हैं
हैं मज़ा पर रोने का हे तब ही जब
शब्द गले से ना निकल पाते हैं !
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
आँसू मगरमच्छ के भी होते हैं
आँसू खून के भी होते हैं
कहे चाहे कुछ भी ये दुनिया
हमें तो बस दिल के ही मालूम होते हैं
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
रोता आदमी क्यों अपने नसीब को कोसता हैं
जबकि कुछ हाथ उसके पलकें भी पोछते हैं
नाज़ुक मोतियों को अपने कंधे पर सहेजते हैं
खुशनसीब हे वो लोग जो किसी से लिपट कर बरसते हैं !
ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
आँखों में लिए ये मोती हम दुनिया में आते हैं
और जाते वक़्त दुनिया की आँखों में दे जाते हैं
ये ज़िन्दगी हे कर्जा इन मोतियों का
जो मरकर ही चुका पाते हैं !

गुस्ताखी


किसका भला हुआ हुआ हैं किनारों पर बैठकर,
बेमौसम बारिश की बहारो को देखकर !
कभी देखना किसी माझी से पूछकर,
कितना मजा आया उसे तुफानो से खेलकर !
करते रहिये थोड़ी गुस्ताखी जानबूझकर,
खुदा भी खौफ खाता हैं खामोश चेहरों को देखकर !
वैसे खुश कोई नहीं यहाँ अपना आज देखकर,
रोता हैं हर कोई एक दुसरे का कामकाज देखकर !
में खुश हूँ मेरे यार का बसा घर संसार देखकर,
और मेरा यार खुश हैं मुझे अब तक आजाद देखकर !
खुश होते हैं वैसे लोग यहाँ आँखों को भी सेककर,
ठहरे हुए पानी में पत्थरो को फेंककर !
वो समझे हम भी चले जायेंगे चेहरे को घूरकर,
हम ठहरे ही रहे पर उनके ही दरवाजे पर !
खायी फिर उनकी गलियों में हमने इतनी ठोकर,
बिन पिए ही चलते हैं हम आज तक लड़खड़ाकर !
कहता हैं ये जमाना हमसे थोडा सा सब्र कर,
हम कहते हैं ज़माने से मिलते हे फिर कब्र पर !

मत पूछ मेरे हौसलों की हदों के बारे में

मत पूछ मेरे हौसलों की हदों के बारे में,
ये वो पंछी हैं, जो जानते ही नहीं सरहदों के बारे में !
उड़ते रहते हैं ये निरंतर ख्वाहिशो के आसमानों में,
और बाज नहीं आते कभी तकदीर को आजमाने से !
रूठ जाती हैं तकदीरे कभी, बदल जाता हे वक़्त भी
दगा देते हैं इंसा अपने, दिक्क़ते देती उम्र भी
बस ये हौसले ही हैं जो कभी रुठते नहीं
हारती हैं ज़िंदगियाँ पर ये कभी हारते नहीं
मत पूछ क्या हासिल हैं इन हौसलों की वजह से
ये वो पंछी हैं, टिका हैं आसमा जिनकी वजह से
ढूंड लाते हैं ये रोजाना ज़िन्दगी का दाना
और भूलकर सारे गम गाते हैं मस्ती का तराना
आया था इक दिन जब हार गए थे ये हौसले
कट गए थे पर इनके, टूट गए थे घौसले
लग रहा था अब न उड़ सकेगी ये कोपले,
पर अगले दिन फिर निकल पड़े ये तिनको को धुंडने
एक-एक तिनका बीनकर, लगे फिर आशियाना जोड़ने
मत पूछ उस दिन इन हौसलों की हालत के बारे में
कुछ सोच ही नहीं रहे थे ये उस दिन राहत के बारे में
उड़ रहे थे उस दिन ये उम्मीद के आकाश में
आसुओं को पौछ्कर आशियाने की तलाश में
ये हौसले भी किसी हकीम से कम नहीं होते हैं,
हर तकलीफ को ताक़त बना देते हैं,
और दर्द से भी दवा चुरा लेते हैं !
एक ख्वाहिश टूटे तो हज़ार ख्वाब सजा लेते हैं,
और छोटी-छोटी कोशिश से मुक़द्दर बना देते हैं !
मत पूछ क्या हाल होगा इन हौसलों के न होने से
मर जाता हैं पंछी कोई पिंजरों में क़ैद होने से
मोह नहीं रहता उसे न खाने में न जीने में
और मर जाती हैं तमन्ना उड़ने की फडफड़ाकर सीने में
मत पूछ मेरे हौसलों की हदों के बारे में,
ये वो पंछी हैं, जो जानते ही नहीं सरहदों के बारे में !
उड़ते रहते हैं ये निरंतर ख्वाहिशो के आसमानों में,
और बाज नहीं आते कभी तकदीर को आजमाने से !

एक दिन दोस्तों के बिन


कैसे गुजरा वो एक दिन,
एक दिन दोस्तों के बिन !
शुरू हुआ बिना शोर के,
ख़त्म हुआ शरारतो के बिन !
…वो एक दिन दोस्तों के बिन…
याद किया उन यारो को,
यादो को, यारो के बिन !
कुछ गुजरे हुए उजले दिनों की,
बातो को, खुराफातो को, आफतो के बिन !
…कैसे गुजरा वो एक दिन…
…एक दिन दोस्तों के बिन …

ऊँचे, नाटे, दुबले, मोटे
हर किस्म के नमूनों को बीन
रंग जमाती थी टोली मेरी
टुएशन हो या टपरी केन्टीन
ना था मैं अलादीन उनका
ना थे वो मेरे जिन्न
फिर क्यों अधूरी हर ख्वाहिश मेरी
उन खुसठ खरगोशो के बिन !
…कैसे गुजरा वो एक दिन…
…एक दिन दोस्तों के बिन …

चाल में थी मस्ती उनके
और आँखों में थे दूरबीन
दिल के थे लाख भले वो
पर हरकतों से थे पूरे कमीन
ना था उनमे सलमान कोई
ना ही था कोई उनमे सचिन
फिर क्यू रात अँधेरी मेरी
उन अनजान सितारों के बिन
…कैसे गुजरा वो एक दिन…
…एक दिन दोस्तों के बिन …

कोई डूबा कन्या के जाल में
तो कोई था बस किताबो में तल्लीन
हर कोई था कुछ हट के जरा
थोडा सा मीठा तो थोडा नमकीन
ना था कोई शेक्सपीयर उनमे
ना था कोई अलबर्ट आइन्स्टीन
फिर क्यू खाली दुनिया मेरी
उन महा-नालायक महा-पुरुषो के बिन
…कैसे गुजरा वो एक दिन…
…एक दिन दोस्तों के बिन …

ख़ुशी


रुई का गद्दा बेचकर दरी खरीद ली,
ख्वाहिशो को कम किया और ख़ुशी खरीद ली !
कुछ पुरानी पतलून बेचकर चड्डी खरीद ली,
क्रिकेट को छोड़ा और कबड्डी खरीद ली !
सबने ख़रीदा सोना मेने सुई खरीद ली
सपनो को बुनने जितनी डोर खरीद ली !
मेरी एक ख्वाहिश मुझसे मेरे दोस्त ने खरीद ली,
फिर उसकी हँसी से मेने अपनी ख़ुशी खरीद ली !
इस ज़माने से सौदा कर एक ज़िन्दगी खरीद ली,
दिनों को बेचा और शामे खरीद ली !
सपनो के सिनेमा में एक सीट खरीद ली,
चुकाया पूरा बिल और पक्की रसीद ली !
रुई का गद्दा बेचकर दरी खरीद ली,
ख्वाहिशो को कम किया और ख़ुशी खरीद ली !

वो मंजिल मुझे मिलेगी जरूर …

आसमानों से आगे और क्षितिज से दूर,
वो मंजिल मुझे मिलेगी जरूर …
रब की होगी रजामंदी उसमे,
और किस्मत को भी होगी कुबूल !
वो मंजिल मुझे मिलेगी जरूर …
सामने हैं समंदर मेरे पर कश्ती हैं बहुत दूर
लहरों की गुजारिश हैं संग खेलना हैं जरूर !
लगने दे डर थोडा, होने दे थोड़ी भूल
सैलाबों से लड़ना हैं तो हिम्मत भी दिखानी होगी जरूर !
कश्तियो सी डोलती और किनारों से दूर
वो मंजिल मुझे मिलेगी जरूर …
बचपन में सुनी थी एक कहानी मशहूर
जो रखता हैं धीरज वही जाता हैं दूर !
फूल तो मुरझाकर हो जाता हैं चूर
पर ये खुशबू उसकी हो जाती हैं मशहूर !
उस फूल सी कोमल और खुशबू से भरपूर
वो मंजिल मुझे मिलेगी जरूर …
पानी की खोज में गड्डा खोद रहा एक मजदूर
मिट्टी के ढेलो से पता पूछ रहा एक मजदूर !
जो मिल जायेगा पानी तो जी जायेगा ये मजदूर
वरना अपनी कबर तो खोद रहा ही ये मजदूर !
उस पानी सी बेशकीमती और कब्र सी निष्ठूर
वो मंजिल मुझे मिलेगी जरूर….
वो मंजिल मुझे मिलेगी जरूर !
रब की होगी रजामंदी उसमे,
और किस्मत को भी होगी कुबूल !
वो मंजिल मुझे मिलेगी जरूर …

पुल

सपने अपने होते हैं, हकीकत बेगानी होती हैं
जो मिल जाये ये दौनो तो महान जिंदगानी होती हैं !
वैसे ये ज़िन्दगानी भी किसी नदी की तरह होती हैं
इसके एक किनारे पर सपने तो दूजे पे हकीकत होती हैं !
दौ किनारों को मिला सके ये हुनर तो खुदा में भी नहीं
हम इंसानों की कोशिश तो इन किनारों पर पुल बनाने की होती हैं !
मिट्टी सपनो की होती हैं, पत्थर हकीकत के होते हैं
और जो जमा दे इन दोनों को वो पकड़ इरादों की होती हैं !
कमबख्त ये बहाव, उलझाव इरादों को पकड़ बनाने भी नहीं देता
जिस पत्थर को उठाओ उसकी मंशा बह जाने की होती हैं !
बस बहती नहीं हैं तो ये ख्वाहिश पुल बनाने की
इसकी इच्छा तो हरदम वक़्त को मुँह चिड़ाने की होती हैं !
पर ये वक़्त ये बहाव किसी का हमदम नहीं दोस्त
इसकी फितरत भी बस बह जाने की होती हैं !
“ठाकुर” वक़्त रहते अपना ये पुल बना लीजिये
ना जाने कौन सी घड़ी साँसों के बिखर जाने की होती हैं !

Friday 17 June 2016

Motivational Quotes

  1. जब तुम पैदा हुए थे तो तुम रोए थे जबकि पूरी दुनिया ने जश्न मनाया था अपना जीवन ऐसे जियो कि तुम्हारी मौत पर पूरी दुनिया रोए और तुम जश्न मनाओ
  2. जब तक आप अपनी समस्याओं एंव कठिनाइयों की वजह दूसरों को मानते है, तब तक आप अपनी समस्याओं एंव कठिनाइयों को मिटा नहीं सकते
  3. भीड़ हमेशा उस रास्ते पर चलती है जो रास्ता आसान लगता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं की भीड़ हमेशा सही रास्ते पर चलती है| अपने रास्ते खुद चुनिए क्योंकि आपको आपसे बेहतर और कोई नहीं जानता
  4. सफलता हमारा परिचय दुनिया को करवाती है और असफलता हमें दुनिया का परिचय करवाती है|
  5. अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है|
  6. अगर आप समय पर अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करते है तो आप एक और गलती कर बैठते है| आप अपनी गलतियों से तभी सीख सकते है जब आप अपनी गलतियों को स्वीकार करते है|
  7. अगर आप उन बातों एंव परिस्थितियों की वजह से चिंतित हो जाते है, जो आपके नियंत्रण में नहीं तो इसका परिणाम समय की बर्बादी एंव भविष्य पछतावा है|
  8. हम चाहें तो अपने आत्मविश्वास और मेहनत के बल पर अपना भाग्य खुद लिख सकते है और अगर हमको अपना भाग्य लिखना नहीं आता तो परिस्थितियां हमारा भाग्य लिख देंगी|
  9. आप यह नहीं कह सकते कि आपके पास समय नहीं है क्योंकि आपको भी दिन में उतना ही समय (24 घंटे) मिलता है जितना समय महान एंव सफल लोगों को मिलता है|
  10. विश्वास में वो शक्ति है जिससे उजड़ी हुई दुनिया में प्रकाश लाया जा सकता है| विश्वास पत्थर को भगवान बना सकता है और अविश्वास भगवान के बनाए इन्सान को पत्थरदिल बना सकता है|
  11. दूर से हमें आगे के सभी रास्ते बंद नजर आते हैं क्योंकि सफलता के रास्ते हमारे लिए तभी खुलते जब हम उसके बिल्कुल करीब पहुँच जाते है|
  12. जीवन में कठिनाइयाँ हमे बर्बाद करने नहीं आती है, बल्कि यह हमारी छुपी हुई सामर्थ्य और शक्तियों को बाहर निकलने में हमारी मदद करती है| कठिनाइयों को यह जान लेने दो की आप उससे भी ज्यादा कठिन हो।
  13. अपने सपनों को जिन्दा रखिए| अगर आपके सपनों की चिंगारी बुझ गई है तो इसका मतलब यह है कि आपने जीते जी आत्महत्या कर ली है|
  14. बारिश की दौरान सारे पक्षी आश्रय की तलाश करते है लेकिन बाज़ बादलों के ऊपर उडकर बारिश को ही अवॉयड कर देते है। समस्याए कॉमन है, लेकिन आपका नजरिया (एटीट्यूड –Attitude) इनमे डिफरेंस पैदा करता है।
  15. बीच रास्ते से लौटने का कोई फायदा नहीं क्योंकि लौटने पर आपको उतनी ही दूरी तय करनी पड़ेगी जितनी दूरी तय करने पर आप लक्ष्य तक पहुँच सकते है|

Patience

पानी को बर्फ में,
बदलने में वक्त लगता है !!
ढले हुए सूरज को,
निकलने में वक्त लगता है !!
थोड़ा धीरज रख,
थोड़ा और जोर लगाता रह !!
किस्मत के जंग लगे दरवाजे को,
खुलने में वक्त लगता है !!
कुछ देर रुकने के बाद,
फिर से चल पड़ना दोस्त !!
हर ठोकर के बाद,
संभलने में वक्त लगता है !!
बिखरेगी फिर वही चमक,
तेरे वजूद से तू महसूस करना !!
टूटे हुए मन को,
संवरने में थोड़ा वक्त लगता है !!
जो तूने कहा,
कर दिखायेगा रख यकीन !!
गरजे जब बादल,
तो बरसने में वक्त लगता है !!

Pehchan


Uthane se leharo ke sagar me hui zara hulchul
jaise lehron ne chaha pana bas kisi ko ek pal.
Baarish ki bundein bhi giri sagar me,
nadiyan bhi jake mili sagar me,
lekin aietraz hai sabko lehron ke uthane se sagar me.
Hui lgon ko shikayat tez leharon se,
chaha unhone ki ho jaye wo dur sagar se.
Mila sagar ki leharon ko toofan ka naam,
lekin kar nahi sakta koi sachhe pyaar ko badnaam.
Duniya ki nazron me lehrein toofan ban gayi,

par sagar ke liye wo, uski pehchaan ban gayi.

Love Poem

Dhoop Ho Chhaaon Ho Tum Saath Nibhaaya Karna....... !
Mere Chehre Pe Sada Palkoon Ka Saaya Karna....... !

Raah Dekhungi Tumhaari Main Sar-E-Shaam Yunhi....... !
Kabhi Jaldi Kabhi Der Se Aaya Karna....... !
... 
Daant Lena Sar-E-Mehfil Koi Baat Nahi....... !
Phir Akele Mein Gale Laga Kar Manaaya Karna....... !

Jaan Jaungi Mein Khushboo Se Tumhaari Tum Ko....... !
Tum Peeche Se Meri Aankhoon Ko Chupaaya Karna....... !

Jaagna Chahun To Raat Bhar Baatein Karna....... !

Nind Aa Jaaye To Seene Par Sulaaya Karna....... !

बेटियाँ

पता नहीं कब

बड़ी हो जाती हैं बेटियाँ

जैसे

बड़े होते हैं पेड़

बड़े होते हैं दिन

बड़ी होती हैं रातें

 

पता नहीं कब

ओढ़ लेती है चादर

शर्म –ओ- हया के

 

पता नहीं कब उसका शरीर

बन जाता है

शरीर कहलाने लायक

 

पता नहीं कब

खिल जाते हैं फूल

खिल जाती है बेटियाँ

मुरझा जाते हैं फूल

मुरझा जाती हैं बेटियाँ

 

पता नहीं कब

बुहारन बन जाती हैं बेटियाँ

लाख कोशिश के बावजूद चौखट में

फंसी रह जाती हैं बेटियाँ

 

पता नहीं कब

उसके बाल कंघी में

उलझने लगते हैं

 

पता नहीं कब

माँ का स्नेहिल आँचल

बन जाता है

इज्जत ढकने का वस्त्र

कंधे झुक जाते हैं

जब आती हैं बेटियाँ

आँखे भर आती हैं

जब जाती हैं बेटियाँ

 

पता नहीं कब

आती हैं बेटियाँ

और क्यों

चली जाती हैं बेटियाँ……|