Wednesday 31 August 2016

“एक परी का जन्नत”

जी करता हॅ उड जाऊं ऊंचे गगन में,
सपनों से सुंदर जग में.
पंख लगाकर परियों सी,
बन जाऊं उनकी शहजादी,
जहां हो सिर्फ आजादी.
वहां न कोई गर्दिश हो,
मुझपर न कोई बंदिश हो.
कदम रखुं जहां पर,
फुलोंभरी सेज हो राहोंभर.
हसुं जब मॅं खिलखिलाकर,
बागों में हर कलि खिले तब,
भीनी-सी खुशबु बिखेरकर.
मेरी मुस्कराहट पर सुरज देता हो जब आहट,
मेरे चेहरे की चमक से, चमके उसका आंगन.
मेरे सपनों से सुंदर आशियाने में,
कुदरत भी दस्तक दे आकर शामियाने में.
हर कोई प्यार की भाषा बोले,
आदर ऑर संस्कार हर तरफ डोले.
खुशियां जहां दॉडी चली आएं,
दुख तो कोसों दुर भाग जाएं.
मेरे इस जहां में,
खुशी ऑर प्यारभरे आमंत्रित हॅं.
आए जो मेरी गलियों में ,
जन्नत की सॅर उसे मॅं कराऊगी.
मेरी जुल्फों तले सुनहरी शाम ढले,
शमा का रुप धरे निकले झिलमिल सितारे.
जब निकले वो चांद सुहाना,
आंचल में छुप जाए समझकर अपना ठिकाना.
रातभर करुं मॅं इनसे बातें,
हरदिन सुनाएं नया फसाना.
दुआएं देकर कहें मुझसे,
रहे सलामत तुम्हारा ये जमाना.
 पर रुबरु हुं मॅं भी हकीकत से,
कि सपने नही उतरते जमी पे.
पर होते हॅं, पॅर नहीं होते इनके,
यह जन्नत तो बसा हॅ मेरे मन में,
काश हकीकत का रुप धर सकते मेरे ये सपने.

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