Thursday 17 September 2020

Expectation Hurts


बुरा, हां बुरा तो लगा है तेरे जाने का पर तुझसे ही सीखा है expectation hurts... और इसलिए अब तक खुद को संभाले हुए हूँ तेरी बेबुनियादी बातों की गठरी अब तक सहेजे पाले हुए हूँ।। मन तो नहीं चाहता तुझे इतनी अहमियत देने का पर तेरी बातो को मन से लेकर कलम तक का सफ़र तय करना.. और उन्हें फिर यूं पन्नों पर बिखराना तुझे अहमियत नहीं देना तो और क्या है?? खैर इस सवाल का जवाब मिलना बाकी है या ढूँढना पता नहीं... कहते हैं टूटे हुए धागे को जोड़ने की खातिर गांठ दे दी जाती है मगर सच तो ये भी है कि कभी कभी कड़वी गोलियां गन्नो के छीटो से भी ज्यादा मीठा असर कर आती है।। अपनी बेहिसाब बेबाक बातों का परदा यूं तेरे सामने खोलना अपनी सारी लिखी कविताओं को बस तुझसे बस तुझसे सबसे पहले बोलना.. और हां बुरा तो लगा है, क्योंकि अब शब्द तो मेरे होंगे पर वो तेरे अल्फ़ाज़ थे ना उन्हें अब मै नहीं सुन पाऊंगी।। मेरे दिल में ना दिमाग में ऐसा कुछ है पर मन चाहता है कि वो जो पास आ गया था ना.. वो बस पास ही रहे।। वो जो मेरा दोस्त था ना वो बस दोस्त बन काश सा रहे।। मैं कोई सफाई नहीं दूंगी, ना मांगूंगी क्योंकि सफाई तो वहां दी जाती है जहाँ कुछ बुरा हो.. तुम्हारा तो पता नहीं, पर हां तुममें मैं, मुझको देखने लगी थी धुंधली ही सही पर खुद को मुस्कुराता देख आंखे में अपनी सेकने लगी थी।। तुम मेरी दुनिया के पहले ऐसे शक्श हो जिसमें अक्स मुझे अपना नजर आता है और इसलिए हो चला ये स्वार्थी मन तुम्हें दूर ना जाने देना चाहता है।। मैं फिर से कोई सफाई नहीं दूंगी क्योंकि तुम किसी और के हो, बात से मैं वाकिफ नहीं ऐसा तो कुछ भी नहीं... पर हां तुम किसी और के ना हो इस बात से वाजिब भी मैं।। तुम्हें जाता हुआ देख मैं तुम्हें रोकूँगी ऐसी मेरी कल्पना भी नहीं... बल्कि जाते जाते तुम, मेरे हिस्से का भी तुम, तुम ही ले जाना और अपनी ख्वाहिशों की लहरों को किसी अथाह सागर में झोक आना और ये मेरे स्वार्थ भरे मनसूबे है ना, उन्हें कहीं दूर बहा ,बस झिटक आना।। अकेली, अकेली तो मैं कभी थी ही नहीं क्योंकि खुद को अकेला कहना मेरे सपनों के साथ महज पराया बर्ताव ही नहीं अन्याय होगा.. पर हां जब भी वक़्त मिले मेरी छोटी - छोटी बातों को बेहिसाब पर लगाना.. इन्हें भी तुम अपने कानो की सैर करवाना।। ऐसी बातें मैं नहीं कहूँगी... expectation hurts... कितना कुछ छिपा हुआ है ना इस शब्द में मगर तुम जा नहीं रहे होते ना तो ये जो शब्द केवल मेरे लिए शब्द ही रह जाते और मुझे पता है.. जब मैं तुम्हें ये बता रही होंगी, तो उससे कहीं पहले मैं खुद को ये बता चुकी होंगी की तुम महज एक मुसाफ़िर हो जो शायद आए ही थे मेरी उन सिर उठती या यूं कहूँ मेरी अधमरी ख्वाहिशों को उनकी मंजिलों का रास्ता दिखाने....




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