Sunday 19 November 2017

अरमान जगाएं

इतना सोच समझ के
कब तक चलेंगे खुद से बच के
क्यों न फिर बेपरवाह हो जाएँ
एक दूजे में फिर से खो जाएंं ।

थोड़ा इठला के शर्मा के
थोड़ा मुस्कुरा गुनगुना के
शिकायतों को तमाशा दिखाएँ
मीठी यांदो को दावत पे बुलाएँ ।

बिखरी बांतो को समेट के
बांधो गठरी जरा कास के
सफर बहुत है लम्बा
कहीं गाँठ खुल न जाए ।

देखता है कौन छुप छुप के
आज जाने ना पाये बच के
उसे छेड़े गुदगुदाए , सताए
उस अजनबी से नयन लड़ाए ।

ना समझ की बांते, ना आज कोई टोके
शोर मचाएं तोड़ टांग सुरों के
जलती रहीं मशाले, बुझ गए अरमान
आज मशालों को बुझा के फिर से अरमान जगाएं ।

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